Monday, 12 February 2018

हमसफ़र - Humsafar Part -4


अगली सुबह महिला आयोग के कुछ अधिकारी आये काफी सारी पूछताछ के वो उसे वहा से ले जाने लगे , मैं अपने बेड पर लेटा हुआ था लेटे लेटे ही पता नही मुझे क्या हुआ मैंने उसे पुकारा एक नाम - आयशा मैंने ये नाम जैसे ही लिया सब रुक गए और वो भी , क्या कहा तुमने ? जी मुझे लगा जब तक हमे इसके बारे में कुछ पता नही चलता तब तक के लिए क्यों न हम इसे किसी नाम से पुकारे तो मेरे जहन में बस ये नाम आया आयशा अच्छा है न ! सभी लोग मुझे देखने लगे तभी एक महिला अधिकारी सामने आयी और बोली बहुत खूबसूरत नाम सोचा तुमने वैसे भी कोई नाम तो रखना ही था जब तक हमे इसका असली नाम न पता चल जाये ! महिला अधिकारी मुड़ी और बोली आप में से किसी को ऐतराज तो नही इस नाम से सभी ने कहा नहीं , फिर वो जाने लगे दरवाजा बंद हो गया और वह मुड़ी और एक नज़र देख कर आगे बढ़ गयी !
इन सभी चीजों में सबसे बड़ी बात ये थी की जिस पुलिस का देश के हर कोने से संपर्क रहता है वो जब चाहे जहा चाहे जिसके बारे में जानना चाहते है जान लेते है लेकिन आज तीसरे दिन भी पुलिस को कोई सुचना मिली ही नहीं! हॉस्पिटल से मुझे तीसरे दिन डिस्चार्ज कर दिया गया मैं अपने घर चला गया अभी भी जख्म भरे नही थे पर अब मैं चल फिर ले रहा था ! शाम हुई तो मैं नींद से उठा और फ्रेश होकर अपने लिए चाय बनाने लगा तभी दरवाजे की घंटी बजी, कौन है ? मैं इंस्पेक्टर रणजीत , आ जाइये सर दरवाजा खुला हुआ है !
वो अंदर आये , कहा हो भाई तुम दिख नही रहे हो, इधर हूँ सर चाय बना आप पिएंगे क्यों नही मगर पहले किचन से बाहर आ कर ये तो देख लो हमारे साथ आया कौन है ? आपके साथ कौन हो सकता है सर आपके साथी ही होने है क्यूँ सही कहा न ? कुछ हद सही कहा पर मेरे साथ कांस्टेबल के अलावा भी कोई और है ? अच्छा रुकिए आ रहा हूँ !
जैसे ही बाहर गया हैरान रह गया देख कर आप शायद समझ ही गए होंगे की कौन हो सकता है मगर मैं हैरान इस लिए था क्योकि जिसे मैंने हॉस्पिटल में आखरी बार देखा था और जो अभी देख रहा था उसमे जमीन आसमान का अंतर था , बहुत ही खूबसूरत सफ़ेद रंग उस पर खिल रहा था , अरे आयशा तुम ! गलत इसका नाम आयशा नहीं है इसका नाम कुछ और है ! मतलब ? मतलब ये की हमे पता चल गया है की इसके बारे में सब कुछ इसका नाम इसके परिवार इसका घर सब कुछ ! अच्छा ये तो बहुत ही अच्छी खबर है सर कहा से है ये और क्या नाम है इनका ? इनका नाम है संगीता और ये दिल्ली से है और इनका परिवार वाले कल आकर इन्हे यहाँ से ले जायेंगे ! इनकी यह ख्वाहिश थी की यहाँ से जाने से पहले ये आप से मिलना चाहती थी इसी लिए हम इन्हे यहाँ लेकर आये !
पुलिस वाले और महिला आयोग के अधिकारी उसे मेरे यहाँ छोड़ कर चले गए ये कह कर की हम दस बजे आएंगे इन्हे लेने के लिए मैंने हाँ में सर हिला दिया ! मेरे अंदर जहा ख़ुशी थी की वह मुझसे मिलने आयी है वही इस बात का कही न कही गम भी था की अब उससे कभी मुलाकात नहीं होगी , खैर इन सब बातो की परवाह किये बगैर मैं तो बस उसकी खातिरदारी में लग गया उसने भी मेरा साथ दिया और खाना पकाने में आसानी हो गयी अजीब भी लगा की घर पर आये मेहमान से इस तरह से अपने काम में हाँथ बटवाना पर शायद यह उस वक़्त की परिस्थितियों के हिसाब से लाजमी था क्योकि मैं ठीक से कोई काम नहीं कर पा रहा था !

हमने कुछ ज्यादा बाते नहीं की यह जानते हुए भी की हम दुबारा शायद ही मिले बस कुछ बाते की भी तो काम की उसके अलावा कुछ भी नहीं ! खाना पीना हो गया और अब उसके जाने का वक़्त भी उसे लेने के लिए अधिकारी आ चुके थे मैं समझ ही नहीं पाया की मुझे कैसे रियेक्ट करना चाहिए खुश भी था और कही न कही गमगीन भी जताना नहीं चाह रहा था बस लेकिन छुपाये कहा छुपता है सच ! वो जाने लगी वो दरवाजे पर पहुँची ही थी की मैंने कहा रुकिए जरा आपकी एक अमानत मेरे पास है जिसे आपको लौटाना जरुरी है , मैं जल्दी जल्दी अपने कदम अपने रूम की तरफ बढ़ाने लगा और अपने ड्रा से उसका लॉकेट निकाल लाया जो मुझे उसे हॉस्पिटल के स्ट्रेचर पर लिटाते वक़्त उसके गले से टूट कर मेरे हाँथों में आ गया था ! 
अपना हाँथ आगे करो ! क्यों ? सवाल मत पूछो बस अपना हाँथ आगे करो ! वो अपना हाँथ आगे की और उसके हाँथ में वो लोकेट मैंने रख दिया जब उसने देखा तो बोली ये क्या है , ये तुम्हारा है तुम्हे हॉस्पिटल पहुचाने के बाद ये मेरे पास था जो अब तुम्हे लौटा रहा हूँ ! नहीं मैं इसे नहीं ले सकती , ले लो प्लीज और वैसे भी ये तुम्हारा है , बेशक हो सकता है की ये मेरी हो पर मैं चाहती हूँ की इसे तुम रखो अपने पास मेरी याद के तौर पर , क्या वाकई तुम ऐसा चाहती हो की मैं इसे रखूँ ? हाँ मैं चाहती हूँ की तुम इसे अपने पास रखो कम से कम जब भी तुम इसे देखोगे तो मैं याद रहूँगी !
ओके ठीक है मैं इसे रख लेता हूँ मगर मुझे भी तुम्हे कुछ देना है मैं अपने जेब से एक दूसरा लोकेट निकला जिसमे घडी लगी हुई थी ! मैंने इसे खुद बनाया है तुम्हारे लिए ये उतनी अच्छी तो नहीं बनी है पर मुझे अच्छा लगेगा अगर तुम इसे अपने पास रखो , क्या कह रहे हो तुम ये तो कितनी खुबसूरत बनी है शुक्रिया , शुक्रिया तुम्हारा भी और बस इतना कह कर वो चली गयी !

देखने वाले की आँखों में मेरा ही गीत था 
वो गीत जो हमने कभी उसे सुनाई भी न थी 

कहानी आगे जारी है ...........

नोट :- अगर आपने हमसफ़र का तीसरा भाग नहीं पढ़ा है तो इस लिंक पर क्लिक करें 
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Md Danish Ansari

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