Thursday, 15 February 2018

कसूर .....


कुछ तेरी निगाहों का कसूर था कुछ मेरी नज़रों का 
हम तुम यूँही बदनाम हो गए ज़माने में ये खेल दो धड़कते दिलों का था 
हुश्न तो यूँही बेवजह बेवफा हो गयी ज़माने में 
हमने तेरे हुश्न से नही सिर्फ एक तुझसे मोहब्बत किया था 
क्या क्या संभालता मैं भला दिल ,जान ,नज़र और क्या क्या 
मैं तो तेरे पाज़ेब की झनक पे ही दिल हार बेठा था 
तू रुसवा न हो जाये कही ज़माने में इसलिए मैंने 
हर इलज़ाम हर खता खुद पर ही सहरा की तरह पहना था 
ये न कह दे कोई के तुझमे कोई बुराई है 
मैंने खुद को ही दुसरो की नज़रों में गिराए रखा था 
मत सोचो तुम के लोग क्या कहेंगे 
लोग तो खुद ये सोच रहे है की फलाना क्या कहेगा 
आ तू फिर से मेरी बाँहों में ,और टूट के बिखर जा 
आ फिर से मैं तुझपे कोई नई दास्तान लिखूंगा 
कसूर किसका था ये सोचने में वक़्त जाया न कर 
आ जल्दी से सुलह करे मोहब्बत के पल जाया न कर 
उम्र लग जाएगी कसूर और कसूरवारो की तलाश में 
क्यों तड़पे हम खुद एक दुसरे की मोहब्बत की प्यास में 

*****

Md Danish Ansari

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