Thursday, 1 February 2018

चोला......


कोई हिन्दू बन रहा है कोई मुसलमान बन रहा है 
किसी को सिख बनना है तो किसी को ईसाई बनना  है 
हर कोई बस एक चोला ओढ़ लेने को तैयार बैठा है 
कोई पगड़ी पहन रहा है कोई पगड़ी उतार रहा है 
कोई मुछ बढ़ा रहा है कोई मुछ उतार रहा है 
सब एक से बढ़कर एक चोला ओढ़ने की दौड़ लगा रहा है 
कल तक जिनके माथे की शोभा तिलक नही थी 
आज वो लम्बा तिलक का क़ुतुब मीनार बना के निकलता है 
कल तक जिनके चहरो की शोभा दाढ़ी नही थी 
आज वो दाढ़ी लम्बा करने मैं हर दौड़ लगाता है 
कोई गले में माला ड़ाल रहा है कोई हाँथों में कड़ा 
सब के सब एक से बढ़कर एक चोला पहन रहे है 
मगर मैं कौन सा चोला ओढ़ूँ जो मुझपे अच्छा लगे 
दाढ़ी मुझ पर जचती नही और धोती मुझे पसंद नही 
मुझे भगवा भी पसंद है और हरा भी मैं किसे धारण करूँ 
मेरे घर में सब हरी सब्जियाँ भी खाते है और मांस भी 
तो फिर मैं किस खाने और पहनावे का विरोध करूँ 
सोचता हूँ लोग जिस तरह से रंगो को बाँट रहे है 
तो हरी सब्जियाँ मुस्लमान और लाल हिन्दू हो गयी 
इस जहाँ में सब एक से बढ़कर एक चोला ओढ़ रहे है 
नास्तिकतावाद की तरफ देखता हूँ तो मन झंझोरड़ता है 
क्योकि इस दिल में तो अब भी ईश्वर का वास् होता है 
हर दूसरा नौजवान खून बहाने को तैयार हो रहा है 
मगर वही वीर बनके खून बहाने वाला नौजवान 
रक्त दान में सबसे पीछे की कड़ी में भी नहीं दिख रहा है 
भारत माँ की जय जोर से जय जय कार कर रहा है 
मगर भारत को बेहतर बनाने के लिए पढ़ और गढ़ नही रहा है 
कोई पटेल को अपने में मिलाने के लिए झपट्टा मार रहा है 
कोई नेहरू को जी जान से निचे गिराने पे तुला है 
और कई तो गांधी को मिटा देने की शपथ ले रहा है 
मगर वह नौजवान सच जानने को पढ़ नही रहा है
किसी को नेहरू तो किसी को गांधी तो किसी को आंबेडकर चाहिए 
मगर कोई ये नहीं पढ़ रहा है की इन सभी को क्या चाहिए 
बस हर कोई गांधीवादी नेहरूवादी पटेलवादी आंबेडकर वादी 
चोला ओढ़े जा रहा है कल तक इनकी किसी को सुध नही थी 
और आज हर कोई बस इन्हे कुछ भी करके अपना बना रहा है 
गांधीवादियों में गांधी के विचार नही मिलते और न ही 
पटेलवादियों में पटेल जी के विचार नही मिलते 
नेहरूवादियों में नेहरू के समाजवाद का अंश नही मिलता
और न ही आंबेडकर वादियों में कही अम्बेडकरवाद नही दीखता 
बस हर कोई इनके नाम मात्रा का चोला ओढ़ना चाहता है 
मगर अब भी सवाल यही है मैं कौन सा चोला ओढ़ लूँ
कोई हिन्दू बन रहा है कोई मुसलमान बन रहा है 
किसी को सिख बनना है तो किसी को ईसाई बनना  है 
मुझे इन्सान बनना है इसके सिवा किसी की जरुरत नही है 
*****
नोट :- यह कविता किसी धर्म जाती संप्रदाय संस्कृति सभ्यता पर व्यंग नहीं है बल्कि यह उन लोगो पर कटाक्ष है जो धर्म का आड़ लेकर सारे कुकर्म कर रहे है यह ऐसे व्यक्ति है जो धर्म का "ध" भी नही जानते और उसके नाम पर लोगो में हिंसा घृण्डा हीन भावना नफरत फैला कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है इसके बावजुद अगर किसी के दिल को ठेस पहुँची हो तो उसके लिए छमा का प्रार्थी हूँ !

Md Danish Ansari

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